आज मीडिया दो चीजों की तुलना कर रहा है।

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आज मीडिया दो चीजों की तुलना कर रहा है।

आज मीडिया दो चीजों की तुलना कर रहा है।  

भोजन के लिए घंटों लाइन में खड़ा रहना,फिर एक वक्त का भोजन प्राप्त करना, 

और, अब शराब की बिक्री आरंभ कर देने के बाद शराब लेने के लिए 7-8 घंटे लाइन में खड़े रहना।  

कहा इस तरह जा रहा है जैसे दोनों पंक्तियों में खड़े लोग एक ही हों। और मजबूर लोगों को भोजन वितरण गलत था। वे वास्तव में मजबूर न थे बल्कि मजबूर होने का नाटक कर रहे थे।

सही बात तो ये हैं कि इन दोनों पंक्तियों मेें दो अलग अलग तरह के लोग हैं।

एक में वे लोग थे जो अपनी मेहनत से वास्तव में देश का निर्माण करते है और जिन्हें उनके श्रम के मूल्य से बहुत कम मजदूरी दी जाती है। जो लॉकडाउन के कारण अपना रोजगाऱ खो बैठे, जिनके पास की थोड़ी बहुत बचत आवास के किराए और बैठ कर खाने के लिए पर्याप्त नहीां थी। वे घर जाना चाहते थे। क्यों कि वे समझ रहे थे कि यहाँ वे भूख से या फिर बीमारी से मर जाएंगे। तो सोच रहे थे कि मरना ही है तो अपने गाँव अपनों के बीच ही क्यूं न मरा जाए। उनमें से हजारो सिर पर कफन बांध कर हजारोंं किलोमीटर की यात्रा करने को पैदल ही निकल गए। उद्योगपतियों/पूंजीपतियों की सरकारों को ध्यान आया कि ये गाँव चले गेए तो उद्योगों को फिर से शुरू करने के लिए मजदूर कहाँ से लाए जाएंगे। उनकी पैदल यात्रा भी जबरन रोक दी गयी। वे दया पर मोहताज हो कर यहाँ वहाँ अटके पड़े हैं।

दूसरी पंक्ति उन मध्य वर्गीय लोगों की है जो मजदूरी के अलावा दूसरे कामों के जरीए पूंजेीपतिवर्ग की सेवा करते हैं। वे शराब के व्यसनी हैं। गनीमत है कि उनमें से कई 40 दिनों में इस के बिना मर नहीं गए। अब वे अपने प्राण बचाने को इन पंक्तियों में खड़े हैं। अपनी धनराशि शराब उत्पादकों और टैक्स के रूप में सरकारों को दे रहेे हैं जिस से सरकारों का वित्तअभाव दूर किया जा सके। 

ये दोनों पंक्तियाँ अलग अलग हैं। पहले वाले लोग बहुसंख्यक हैं। वे इस दुनिया का निर्माण करते हैं और उसे बदलने की ताकत रखते हैं। दूसरे वे हैं जो वर्तमान शासकों की सेवा में लगे रहते हैं। शासन पहली पंक्ति के लोग यदि अपने हाथ में ले लेंगे तो ये उनकी जय बोलने लगेंगे। बस इनमें यह खूबी है कि इनको लगा कि इस से तो पहले वाले राज में मौज अधिक थी तो ये पहली पंक्ति वालों की पीठ में छुरा भोंकने में भी देर नहीं करेंगे। 

पहली पंक्ति वाले अनुभव से सीख रहे हैं। दुनिया को बदलनाा भी चाहते हैं। वे यह भी समझने लगे हैं कि यह दुनिया कैसे बदली जा सकती है। बस उन्हें एक सुगठित संगठित मजदूरवर्गीय विचारधारा वाले नेतृत्व की आवश्यकता है।

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दिनेश राय द्विवेदी


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