'थार' ( Poem ) Thar DesertDiery

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'थार' ( Poem ) Thar DesertDiery

बेहिसाब बस्तियाँ और बेहिसाब आवाजें न केवल ख़ैर मनाती है साथ ही बरसों की अपनायत 'थार' की अटूट तहजीब है।
टीलो के मध्य सजती शाम और उगता सूरज यहाँ की आन-बान-शान का स्वर्णिम अभिनन्दन करता हैं।

अतीत के अनेकानेक पन्ने विश्व भर में टटोले गए, सुनाए गए क़िस्से उबाऊपन दे गए।लेकिन 'थार' के पन्ने संगीत की धुन में पिरोये गए वे शब्द हैं जिनका अस्तित्व आने वाली पीढियां भी महसूस करेंगी।

जब-जब भी हथियार उठाए गए और फैलाई गयीं नफरते तब 'थार' ने मोहब्बत के गीत गाए, तोड़ दी वे सभी धारणाएं जो तहजीबी पर कलंक थी।

उस पार घने रेत के
टीलो में सजती है
मुक्कमल बस्तियाँ
रहती है खामोश आवाजें
रातों के अंधियारों में
दिन के उजालों में

थार की माटी और उसका इत्मिनान
उसकी तहजीब और उसका अपनापन
बरसों से न टूटे ना ही बिखरे

~ शौक़त

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